भूमि मे भागीदारी
क्या आप जानना जाहते है? कि आजादी के बाद पिछउों की ७९ प्रतिशत भूमि को क्रोनी केपेटलिज्म के जरिये कैसे हडप लिया ?
१.स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटिस राज्य में भूमि राजस्व प्रणाली व उसके प्रकार
२. आजाद भारत में भूमि स्वामित्व प्रणाली में सुधार
३. आजाद भारत में भूमि स्वामित्व का बटवारा
४. एससी, एसटी, ओबीसी एवं माइनोरिटी का भूमि स्वामित्व का अधिाकार
५. जम्बू काश्मीर एवं केरल में भूमि स्वामित्व
प्रणाली में सुधार के प्रयास
६. क्रोनी केपेटिलिज्म के जरिये ससी, एसटी,
ओबीसी एवं माइनोरिटी के भूमि स्वामित्व
केअधिाकार को कैसे छीना
७. डाक्टर अम्बेडकर के सामाजिक आर्थिक
विचार
८. निष्कर्ष
स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटिश राज में भूमि राजस्व प्रणाली
स्वतंत्रता के पूर्व किसानों के पास खेती की जमीन के स्वामित्व के अधिकार नही
होते थे भूमि का स्वामी राज्य होता था और राज्य का मालिक राजा होता था राज्य को
चलाने के लिए भूराजस्व मुख्य आय का श्रोत था ब्रिटिस भारत में राजस्व बसूली के
लिए अग्रेजों ने कुछ प्रणालियां विकशित की थी जिनक वर्णन निम्नानुसार है-
१.जमींदारी प्रथा
२.महालवारी प्रणाली
३.रैयतवाड़ी प्रणाली
४.ताल्लुकदारी प्रणाली
५.मालगुजारी प्रणाली
१.जमींदारी प्रथा
जमींदारी प्रथा की शुरुआत लॉर्ड कार्नवालिस ने 1793 में की थी जिसमें बाद में
स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्थ लाई गई जिसमे वास्तविक कृषकों के लिए भूमि अधिकारों को स्थायी रूप से निर्धारित कर दिया गया था। जमींदारों द्वारा एकत्रित कुल भू-राजस्व में सरकार का हिस्सा 10/11 रखा गया तथा शेष हिस्सा जमींदारों को दिया जाता था यह प्रणाली ओडिशा,
पश्चिम बंगाल , बिहार उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, में सबसे अधिक प्रचलित थी।
इस प्रणाली में एक स्थायी निपटान समझौता हुआ जिसे स्थायी भूमि राजस्व समझौता भी कहते है जिसमें जमींदारों को भूमि का स्थायी स्वामी माना गया जिसमें जमीदारों को वार्षिक राजस्व का 89% राज्य को तथा 11% हिस्सा जामीदार को देने की अनुमति दी गई. जमींदारों को अपने-अपने जिलों के आंतरिक मामलों में स्वतंत्र छोड़ दिया गया.जमींदारों को भूमि का वंशानुगत स्वामी माना गया तथा उन्हें उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त हुआ। जमींदार अपनी इच्छानुसार जमीन बेच या हस्तांतरित कर सकते हैं।
जमींदार की संपत्ति तब तक बनी रहती है जब तक वह सरकार को निर्दिष्ट दिन पर एक निश्चित आय का भुगतान करता है। यदि वे भुगतान नहीं करते हैं, तो उनके अधिकार समाप्त हो जाएंगे, और भूमि को नीलाम कर दिया जाएगा। जमींदारों को दी जाने वाली रकम एक निश्चित थी। यह तय था कि भविष्य में इसमें कभी वृद्धि नहीं होगी।
जमींदारी प्रथा की विशेषताएं
तय की गई राशि अंग्रेजों के राजस्व का 10/11 हिस्सा और जमींदार के राजस्व का 1/11 हिस्सा थी। यह कर दर इंग्लैंड की तुलना में बहुत अधिक थी।ज़मींदार को काश्तकार को एक पेटेंट भी देना पड़ता था जिसमें उसे दी गई ज़मीन और ज़मींदार को जो किराया देना होता था उसका विवरण होता था। किसानों की देखभाल की जिम्मेदारी भारतीय जमींदारों के कंधों पर आ गयी।
जमींदारी प्रथा से जुड़े मुद्दे
किसानों के लिए: गांवों में किसानों ने व्यवस्था को शोषणकारी और दमनकारी पाया क्योंकि वे जमींदारों को बहुत अधिक किराया देते थे जबकि जमीन पर उनका अधिकार बहुत कम था। किसानों को किराया चुकाने के लिए कर्ज लेना पड़ता था या किराया न चुका पाने पर उन्हें अपनी जमीन से बेदखल कर दिया जाता था।
जमींदारों के लिए: जमींदारों को भुगतान करना मुश्किल लगता था क्योंकि राजस्व बहुत अधिक निर्धारित किया गया था और भुगतान न करने पर, वे अपनी जमींदारी खो देते थे। इसलिए जमींदार भूमि सुधार के लिए बहुत उत्सुक नहीं थे।
२. रैयतवाड़ी प्रणाली
यह प्रणाली 18२० में कैप्टन अलेक्जेंडर रीड और सर थॉमस मुनरो द्वारा तैयार की गई थी और मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर रहते हुए सर थॉमस मुनरो ने इसे लागू किया था
किसानों द्वारा भू-राजस्व का भुगतान सीधे राज्य को किया जाता था
रैयत नामक व्यक्तिगत कृषक को भूमि की बिक्री, हस्तांतरण और पट्टे के संबंध में पूर्ण भू-अधिकार प्राप्त थे।
यह प्रणाली दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों तक ही सीमित थी, सबसे पहले इसे तमिलनाडु,
फिर बॉम्बे, मद्रास, पूर्वी पंजाब के कुछ हिस्सों, कूर्ग प्रांत और असम में लागू किया गया।
जब तक रैयत लगान का भुगतान करते रहेंगे, उन्हें उनकी भूमि से बेदखल नहीं किया जा सकता। रैयत (किसान) राज्यों को भू-राजस्व के भुगतान के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होते थे। इस प्रणाली का लाभ यह था कि इससे बिचौलियों का खात्मा हो गया, जो अक्सर ग्रामीणों पर अत्याचार करते थे।
रैयतवाड़ी प्रणाली से संबंधित मुद्दे
इस प्रणाली ने अधीनस्थ राजस्व अधिकारियों को बहुत अधिक शक्ति प्रदान की, जिनके कार्यों की अपर्याप्त निगरानी की जाती थी। इस प्रणाली पर महाजनों और साहूकारों का प्रभुत्व था जो किसानों को उनकी जमीन गिरवी रखकर ऋण देते थे। साहूकार किसानों का शोषण करते थे और ऋण न चुकाने पर उन्हें उनकी जमीन से बेदखल कर देते थे।
राजस्व की अत्यधिक दर के कारण कृषि अलाभकारी हो गई थी। वसूली का तरीका कठोर था।
उन्होंने ऋणदाताओं और देनदारों के बीच संबंधों में क्रांतिकारी बदलाव लाकर सूदखोरों का एक वर्ग तैयार किया। ब्याज दर बहुत अधिक थी और किसान केवल ब्याज ही चुका सकता था। भू-सम्पत्ति का मूल्य घट गया। माप गलत था, तथा उत्पादन अनुमान दोषपूर्ण था। अधिमूल्यांकन के विरुद्ध न्यायालय में कोई अपील नहीं की जा सकती थी।आशावादी अधिकारियों ने कल्पना की थी कि नई प्रणाली किसानों को अमीर उद्यमी किसानों में बदल देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भूमि से आय बढ़ाने की इच्छा से प्रेरित होकर, राजस्व अधिकारियों ने राजस्व की मांग इतनी अधिक तय कर दी कि किसान उसे चुकाने में असमर्थ थे। परिणामस्वरूप, रैयत ग्रामीण इलाकों से भाग गए और कई क्षेत्रों में गांव वीरान हो गए।
३. महालवारी प्रणाली
1822 में, अंग्रेज होल्ट मैकेंजी ने बंगाल प्रेसीडेंसी के उत्तर पश्चिमी प्रांतों में महालवाड़ी प्रणाली के रूप में जानी जाने वाली एक नई प्रणाली तैयार की (इसका अधिकांश क्षेत्र अब उत्तर प्रदेश में है) महालवाड़ी प्रणाली के तहत, भू-राजस्व पूरे गांव की ओर से (न कि ज़मींदार की ओर से) गांव के मुखिया द्वारा किसानों से वसूला जाता था पूरे गांव को ‘महल‘ नामक एक बड़ी इकाई में परिवर्तित कर दिया गया तथा भू-राजस्व के भुगतान के लिए इसे एक इकाई माना गया। इस व्यवस्था को लॉर्ड विलियम बेंटिक ने वर्ष 1833 में संशोधित किया था। इस प्रकार की बंदोबस्ती गंगा घाटी, उत्तर-पश्चिमी प्रांतों, मध्य भारत के कुछ हिस्सों और पंजाब में शुरू की गई थी। महालवाड़ी प्रणाली के अंतर्गत राजस्व को समय-समय पर संशोधित किया जाना था तथा इसे स्थायी रूप से तय नहीं किया जाना था। इस प्रणाली को लॉर्ड विलियम बेंटिक ने आगरा और अवध में लोकप्रिय बनाया और बाद में इसे मध्य प्रदेश और पंजाब तक विस्तारित किया गया।
महालवाड़ी प्रणाली की विशेषताएं
इस भू-राजस्व प्रणाली में, मूल्यांकन का आधार महल की उपज थी, तथा महल के सभी स्वामी राजस्व के प्रबंधन और भुगतान के लिए संयुक्त रूप से जिम्मेदार थे; कभी-कभी, यह महल एक या एक से अधिक गांवों से मिलकर बनता था। · ·
यह दोहरी व्यवस्था थी। कब्जे और स्वामित्व के अधिकार व्यक्तिगत किसानों के लिए आरक्षित थे, और खेती व्यक्तिगत रूप से की जाती थी। उन्हें गांव के मुखिया या गांव के नेताओं के माध्यम से सामूहिक रूप से भू-राजस्व का भुगतान करना पड़ता था। खेती व्यक्तिगत रूप से की जाती थी, लेकिन भू-राजस्व सामूहिक रूप से चुकाया जाता था। राज्य ने विभिन्न मृदा वर्गों के लिए औसत किराये की अवधारणा को लागू करके कृषि अर्थव्यवस्था के प्रत्यक्ष प्रबंधन का अधिकार सुरक्षित रखा। इस प्रणाली में सरकार की राजस्व दर निश्चित अर्थात 66% रखी गई थी तथा यह समझौता 30 वर्षों तक के लिए किया जाता था।
महालवारी प्रणाली से संबंधित समस्या
इस प्रणाली की एक बड़ी खामी यह थी कि सर्वेक्षण व्यावहारिक रूप से दोषपूर्ण मान्यताओं पर आधारित था, जिससे हेरफेर और भ्रष्टाचार की गुंजाइश बनी रहती थी।
कई बार तो इससे कंपनी को राजस्व संग्रह से ज़्यादा खर्च करना पड़ता था। नतीजतन, इस व्यवस्था को विफल माना गया। वास्तविक व्यवहार में, अधिकार प्रमुख परिवारों के कुछ प्रमुख समूहों को दिए गए थे। सामान्यतः किसानों को काश्तकार, सहकर्मी आदि की स्थिति में धकेल दिया गया। आर्थिक और सामाजिक असमानताएं बढ़ गईं और किसानों पर अत्यधिक बोझ बढ़ गया। उत्पादकता के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई।
४. ताल्लुकदारी प्रणाली
तालुकदार एक बड़ा भूस्वामी होता है।बड़े जमींदारों ने स्वयं कई संप्रदायों के तहत कई तालुक बनाए थे, जैसे, जंगलबुरी तालुक, मजकुरी तालुक, शिकिमी तालुक, इत्यादि स्थायी बंदोबस्त के दबाव में, कई ज़मींदार पट्टानी तालुक, नोआबाद तालुक और ओसात तालुक के रूप में आश्रित तालुकों का निर्माण कर रहे थे।
तालुकदारी व्यवस्था में, भारत के विभिन्न भागों में “तालुकदार” शब्द के कुछ अलग-अलग अर्थ हैं। अवध के मामले में, तालुकदारों को बड़े भूस्वामी माना जाता था।इन्हें ज़मींदारों द्वारा एक रणनीति के रूप में और विभिन्न उद्देश्यों के लिए ज़मींदारी निधि जुटाने के लिए एक राजकोषीय नीति के रूप में बनाया गया था।
५. मालगुजारी प्रणाली
तत्कालीन मध्य प्रांत में प्रचलित भूमि स्वामित्व को मालगुजारी प्रणाली के रूप में जाना जाता था, जिसमें मालगुजार मराठों के अधीन केवल एक राजस्व कृषक था।
जब मराठा इस क्षेत्र में सत्ता में आये, तो उन्होंने गांवों की आय प्रभावशाली और धनी व्यक्तियों को दे दी, जिन्हें मालगुजार कहा जाता था।
ब्रिटिश शासन के दौरान उन्हें मालिकाना हक दिए गए और राजस्व के भुगतान के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया गया। यदि किसी गांव का मुखिया कमजोर हो या किसी अन्य कारण से अधिकारियों द्वारा अपेक्षित राशि का भुगतान करने में असमर्थ हो, या यदि कोई दरबारी पसंदीदा व्यक्ति गांव को चाहता हो, तो मुखिया के स्थान पर बिना किसी हिचकिचाहट के किसी किसान को नियुक्त कर दिया जाता था। किसान या प्रबंधक को पहले मुकद्दम कहा जाता था। मालगुजारी प्रणाली के तहत, मालगुजारों में से नियुक्त लंबरदार/सदर लंबरदार, राजस्व का प्रभारी होता था।
अन्य काश्तकार या तो पूर्ण अधिभोगी काश्तकार, अधिभोगी काश्तकार, उप-काश्तकार, रैयत-मालिक या पट्टेदार होते थे, जिन्हें विभिन्न आधारों पर उनकी जोतों से बेदखल किया जा सकता था। मालगुजार (मालिक या सह-हिस्सेदार) के पास विशेष विवरण के तहत भूमि होती थी, जैसे सर भूमि और खुदकाश्त भूमि।
भारत में भूमि सुधार
भारत में भूमि सुधार का उद्देश्य भूमि के वितरण में समानता हासिल करना था, जिसमें स्वामित्व अमीर से गरीब की ओर स्थानांतरित हो। बड़ी भूमि जोत को समाप्त करके भूमि का अधिक न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करना।
भूमि जोत की अधिकतम सीमा का मतलब कानूनी रूप से उस अधिकतम आकार को निर्धारित करना था जिसके आगे कोई भी किसान या किसान परिवार कोई भूमि नहीं रख सकता था।
ब्रिटिश राज में भूमि का मालिक राज्य होता था अग्रजों ने राजस्व वसूली के लिए जमींदारी प्रथा, महालवारी प्रणाली, रैयतवाड़ी प्रणाली, ताल्लुकदारी प्रणाली, मालगुजारी प्रणाली बनाई थी
एक वोट एक कीमत
देश की मालिक जनता हुई
देश प्राकृतिक संसाधन जल, जंगल, जमीन की मालिक जनता हुई
घर की जमीन का बटवारा संख्या के अनुापात मे होता है
देश प्राकृतिक संसाधन जल, जंगल, जमीन का बटवारा भी संख्या के अनुपात में होना चाहिए
भूमि के स्वामित्व का बटवारा
संख्या के अनुपात मे ब्राम्हण को ३.५ प्रतिशत, क्षत्रिय को ५.५ प्रतिशत, वेश्य को ६ प्रतिशत, शूद्र को ८५ प्रतिशत अर्थात ओबीसी ५२ प्रतिशत, एससी १५ प्रतिशत, माइनोरिटी १०.५ प्रतिशत, एसटी ७.५ प्रतिशत भूमि दी जानी थी
७.४ भूमि के स्वामित्व का बटवारा कैसे किया
ब्राम्हण जिसकी जनसंख्या ३.५ प्रतिशत है उसको ५ प्रतिशत भूमि, क्षत्रिय जिसकी जनसंख्या ५.५ प्रतिशत है उसको ८० प्रतिशत भूमि, वेश्य जिसकी जनसंख्या ६ प्रतिशत है उसको ९ प्रतिशत भूमि दी गई है दूसरी तरफ शूद्र जिसकी जनसंख्या ८५ प्रतिशत है उसको ६ प्रतिशत भूमि दी गई है जिसको वर्गो में विभाजित किया गया है
ओबीसी जिसकी जनसंख्या ५२ प्रतिशत है उसको ४ प्रतिशत भूमि, एससी जिसकी जनसंख्या १५ प्रतिशत है उसको ०.५ प्रतिशत भूमि, माइनोरिटी जिसकी जनसंख्या १०.५ है उसको १ प्रतिशत भूमि, एसटी जिसकी जनसंख्या ७.५ प्रतिशत है उसकको ०.५ प्रतिशत भूमि दी गई है इस प्रकार भूमि का असमान वितरण किया गया हैा
७.५ भूमि के स्वामित्व का किसका कितना हिस्सा छीना
एससी की १४.५ प्रतिशत भूमि, एसटी की ७ प्रतिशत भूमि, ओबीसी की ४८ प्रतिशत प्रतिशत भूमि, इनोरिटी की ९.५ प्रतिशत भूमि मिलनी चाहिए थी इस प्रकार ८५ मूल निवासियों का कुल ७९ प्रतिशत हिस्सा छीन लिया
जम्मू कश्मीर में भारत का पहला क्रांतिकारी भूमि सुधार
नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला ने सर्वप्रथम जम्मू कश्मीर में एक क्रांतिकारी भूमि सुधार कानून बिग लैंडड एस्टेट्स अबोलिशन एक्ट 1950 लागू किया.
(1) भूमि की अधिकतम सीमा 182 कैनाल (22.75हेक्टेयर) तय कर दी गई. इसमें बागानों, चारागाहों, जलाऊ और न जोतने योग्य बेकार भूमि को शामिल नहीं किया गया,
(2) बटाई पर खेती करने वाले किसानों को जमीन का मालिकाना दिया गया,
3) जिन किसानों को जमीन उपलब्ध कराई गई उनके लिए 160 कैनाल की सामा निर्धारित की गई जिसमें पहले से मालिकाने की जमीन भी शामिल थी,
(4) जम्मू और कश्मीर भारत का इकलौता राज्य बन गया जहां बड़े जमींदारों को जमीनों के बदले कोई मुआवजा नहीं दिया गया,
(5) पुंछ क्षेत्र के सभी गैर मौरूसी काश्तकारों को उनकी जमीनों का मालिकाना दे दिया गया,
(6) उधमपुर में शिकार के लिए आरक्षित की गई जमीनों का आरक्षण समाप्त कर दिया गया और किसानों को इन जमीनों पर खेती करने की अनुमति दी गई,
(7) शिकार के नियमों में बदलाव करके जंगलों के आसपास के गांवों के किसानों को उन जंगली जानवरों पर गोली चलाने के अधिकार दिए गए जो उनकी खेती को नुकसान पहुंचाते थे
(8) 13 अप्रैल 1947 के बाद जमीन के अंतरण के सभी आदेश और डिक्रियों को अमान्य घोषित कर दिया गया ताकि इस कानून की भूल भावना से खिलवाड़ न हो सके.
कुछ वर्ष बाद केंद्र सरकार ने शेख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त कर उन्हें जेल में डाल दिया.
दूसरा बड़ा भूमि सुधार केरल में
सत्ता में आते ही इस सरकार ने राज्य में भूमि सुधार और शिक्षा में सुधार की वड़ी मुहिम चलाई.
1957 में केरल प्रदेश में चुनाओं के जरिये दुनिया की पहली निर्वाचित कम्युनिरट सरकार का. नम्बुदरीपाद के नेतृत्व में सत्ता में आई.
राज्य के भूमिहीनों को खेती लायक उपयुक्त जमीनें आवंटित की गयी
किसानों, खेत मजदूरों के कर्ज माफ किए गए
जमींदारों की ताकत को कमजोर किया गया
केरल में शिक्षा में सुधार
शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक सुधार शुरू हुए,
स्कूलों में पढ़ाने का समय निर्धारित हुआ
निजी स्कूलों में अनिवार्य रूप से सरकारी पाठ्यक्रम चलाना
सरकार के नियमों की अवहेलना करने पर स्कूलों का अधिग्रहण इसके मुख्य कदम थे
केरल में सरकार को बर्खास्त
भूमि एवं शिक्षा में सुधार इन दोनों कदमों से परेशान राज्य के प्रभुत्वशाली वर्ग ने बड़े पैमाने पर सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया.
बाद में नेहरू सरकार ने 1959 में नम्बूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया.
बिहार में भूमि सुधार
. बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950 ने जमींदारों को भूमि मालिक के रूप में समाप्त करने का प्रावधान किया तथा इन संपत्तियों को राज्य को सौंप दिया।
. बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950 ने जमींदारों को भूमि मालिक के रूप में समाप्त करने का प्रावधान किया तथा इन संपत्तियों को राज्य को सौंप दिया।
क्रोनी पिटलिज्म से भूमि हडपना
क्रोनी कैपिटलिज्म एक पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है जिसमें राजनीतिक नेताओं और सरकारी अधिकारियों के साथ करीबी संबंध रखने वाले व्यक्ति या व्यवसाय बाजार में अनुचित लाभ हासिल करने के लिए अपने राजनीतिक संबंधों का उपयोग करते हैं।
भारत में सबसे अमीर लोग क्रोनी कैपिटलिज्म की बदौलत अमीर बन गए हैं।
‘बेनामी हस्तांतरण‘ के तहत बांट दिया –
शहरी करण के लिए अधिग्रहण करके गरीबों से छीन कर अमीरों को आवास के लिए सस्ते मे उपलब्ध करना
मंदिरो के नाम करके एवं बाद में कब्जे के आधार पर पुजारियों के नाम करके जमीन हडपी जा रही हैं
रियल एस्टेट अरबपतियों का भी यही मामला है, जिनमें से कई ने सरकारों द्वारा उन्हें आवंटित सस्ती जमीन से लाभ उठाया।”
1942 में कुमारप्पन समिति ने सिफारिश की कि एक परिवार के लिए पर्याप्त आजीविका चलाने के लिए जितनी भूमि की आवश्यकता है उससे अधिक भूमि नही रख सकता है।
1949 के भारतीय संविधान के अनुसार, राज्यों को भूमि सुधार कानुन बनाने और उसे लागू करने की शक्तियाँ प्रदान की गईं।
औद्यौगिक विकास के नाम पर अधिग्रहित कर सस्ते मे उद्यौगपतियों के देना
भूमाफिया पुलिस राजस्व विभाग, पंजीयन विभाग, नेताओं एवं न्यायपालिका की की मिली भगत से दस्तावेजों में हेरफेर कर जमीनों को हडपना
विकास के नाम पर खेती की जमीनों का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण
एसइजेड के नाम पर लाखों एकड़ कृषि भूमि बड़े कारपोरेट के हवाले की गयी.
एक्सप्रेस-वे, रेल कारीडोर, राजमार्गों के दोनों ओर भी लाखों एकड़ जमीन को व्यवसायिक घोषित कर दिया गया है.
गैस पाइप लाइनें बिछाई जा रही हैं.
तमाम राज्य सरकारें कारपोरेट को सहजता से भूमि उपलब्ध कराने के लिए लाखों एकड़ भूमि के भूमि बैंक बना रही हैं.
जमींदारी उन्मुलन और सीलिंग कानूनों के बावजूद भारत में सत्ता के संरक्षण में सामंतों और बड़े जमींदारों का न सिर्फ बड़े पैमाने पर जमीनों पर एकाधिकार बना रहा,
बल्कि ग्रमीण समाज और राज्यों की राजनीति पर भी उनका प्रभुत्व बना रहा.
आज भी सैकड़ो व हजारों एकड़ के बड़े फार्म व इस्टेट मौजूद हैं.
इस वक्त भारत में भूमि सुधार कानूनों को पलटने और खेती की जमीनों, आदिवासियों के जंगल और नदियों को बड़े कारपोरेट के कब्जे में पहुंचने का अभियान जोर-शोर से जारी है.
तमाम राज्य सरकारों के माध्यम से भूमि हदबंदी कानूनों को बदला जा रहा है.
कृषि भूमि के गैर कृषि उपयोग पर लगे प्रतिबंधों को खत्म किया जा रहा है.
अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जमीनों को गैर-जातीय लोगों के लिए हस्तान्तरण पर लगी कानूनी रोकों को हटाया जा रहा है.
आदिवासियों-वनवासियों को उनके पुश्तैनी अधिकार की जमीनों पर मालिकाना हक देने वाला वनाधिकार कानून 2006 की अवहेलना कर बड़े पैमाने पर उन्हें उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है.
भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के भारी आन्दोलन के दबाव में 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून को निष्क्रिय किया जा रहा है.
वषों से जन आंदोलनों के बल पर सरकारी जमीनों या ग्राम समाज व सीलिंग की जमीनों पर बसे भूमिहीन और गरीब किसानों को जमीन का मालिकाना हक देने के बजाए फिर से उजाड़ा जा रहा है .
आदिवासी-वनवासी क्षेत्रों में खनिज व वन संपदा से भरपूर आदिवासियों और वन विभाग की लाखों एकड़ जमीनें बड़े कारपोरेट को दी जा रही हैं.
पर्वतीय क्षेत्रों में नदी घाटी की उपजाऊ जमीनों को विद्युत् परियोजनाओं के नाम पर कारपोरेट के हवाले किया जा रहा है.
राष्ट्रीय पार्कों और वन विहारों के साथ ही ईको सेंसिटिव जोन के नाम पर उन परम्परागत पर्वतीय लोगों, वन वासियों और आदिवासियों को जबरन उनके गावों व जमीनों से बेदखल किया जा रहा है,
जो सदियों से इन वनों और ईको सिस्टम को बचाए रखने के मजबूत स्तम्भ रहे है. इन क्षेत्रों में सत्ता के संरक्षण में कारपोरेट की पहुंच ने हमारे पर्यावरण और ईको सिस्टम को भारी नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया है.
भारत के आर्थिक जीवन में सामन्ती अवशेषों के साथ सामंजस्य बिठाते हुए कारपोरेट पूँजी का नियंत्रण बढ़ रहा है.
कारपोरेट पूँजी का यह नियंत्रण आर्थिक क्षेत्र के साथ ही राज्य की संस्थाओं और संसदीय लोकतंत्र में भी बढ़ा है.
भारत का खेती और कृषि में कारपोरेट पूँजी का पहुंच बड़े पैमाने पर बढ़ी है.
बड़ी पूँजी का यह पहुंच ग्रामीण समाज में मौजूद सामन्ती अवशेषों को खत्म किए बिना और वहां उत्पादन संबधों को बदले बिना हुई है.
यह स्थितियां बड़ी पूंजी और साम्राज्यवाद को सस्ते श्रम और कच्चे माल का आसान बाजार उपलब्ध कराती हैं.
यही नहीं यह भारतीय समाज में जातियों और सामंती संबंधों को भी टिकाए रखने का आधार देती हैं. यह उत्पादक शक्तियों के विकास में बाधक है और भारतीय समाज व राजनीति के व्यापक लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को रोके हुए है.
डॉ. अंबेडकर के माजिक-आर्थिक विचार
भारत के पिछड़ेपन का मुख्य कारण भूमि-व्यवस्था के बदलाव में देरी है,
अंबेडकर कृषि योग्य भूमि के राष्ट्रीयकरण के प्रमुख पैरोकर थे. डॉ. अंबेडकर राज्य को ये दायित्व सौंपते है
संपदा के समान वितरण के लिए भी उपबंध किए जाएं.
नियोजित ढंग से कृषि के क्षेत्र में राजकीय स्वामित्व प्रस्तावित है जहां सामूहिक तरीक़े से खेती-बाड़ी की जाए
उद्योगों के क्षेत्र में राजकीय समाजवाद रूपांतरित रूप भी प्रस्तावित है. इसमें कृषि एवं उद्योग के लिए आवश्यक पूंजी सुलभ कराने की व्यवस्था राज्य के कंधों पर स्पष्ट डाली गई है.
नियोजित ढंग से कृषि के क्षेत्र में राजकीय स्वामित्व प्रस्तावित है जहां सामूहिक तरीक़े से खेती-बाड़ी की जाए
उद्योगों के क्षेत्र में राजकीय समाजवाद रूपांतरित रूप भी प्रस्तावित है. इसमें कृषि एवं उद्योग के लिए आवश्यक पूंजी सुलभ कराने की व्यवस्था राज्य के कंधों पर स्पष्ट डाली गई है.
निष्कर्ष:
जब तक सभी जातियों को भूमि में समान भागीदारी नहीं मिलती, तब तक समाज में वास्तविक समानता प्राप्त नहीं की जा सकती।
आर्थिक क्षेत्र में जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने और सवणों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए समग्र और सतत प्रयासों की जरूरत है। इसके लिए कानूनी सुधार, शिक्षा और सामाजिक जागरूकता अभियान आवश्यक हैं।