शिक्षा व्यवस्था पर ब्राम्हणवाद का शिकंजा
शिक्षा
शिक्षा एक ऐसी विधा है जिसको इंसान जिस रूप में ग्रहण करता है बैसा ही बन जाता है कोई साधू बन जात है कोई राजा, कोई नोकर तो कोइ मजदूर बन जाता है कोई गुलाम व चाटुकार बन जाता है
बाबा साहव डाक्टर भीमराव अम्बेकर जी ने कहा था कि शिक्षा वह शेरनी का दूध है इसे जो पीयेगा वह दहाढेगा
लेकिन इसी शिक्षा को ग्रहण करके लोग बकरा भी बन जाता है जो हमेशा कटते रहते है इसलिए हम कहते हैं कि
शिक्षा वह बकरी का दूध भी जिसे जो पीता है वह हमेशा कटता है
जैसे एसएी एसटी ओबीसी के लोग जो मेहनत और खून पसीने से कमाते है धार्मिक और अंध विश्वास के नाम पर ब्राम्हणों को लुूटाते हैं हिन्दू धर्म ब्राम्हणों का ऐसा एटीएम जिसमें एससी, एसटी, ओबीसी के लोग जमा करते हैं और ब्राम्हण निकाल है
शिक्षा वह गीदडनी का दूध भी है जिसे जो पीएगा वह गीदड बनेगा
जैसे एससी, एसटी, ओबीसी के नेता जो ब्राम्हणवादियों के सामने गीदड बने रहते हैं
राजा बनने की शिक्षा
लोग शिक्षा ग्रहण करके राजा बन जाते है उस शिक्षा का स्तर और संस्थान अलग होते हैं जिसमें हक अधिकार की शिक्षा दी जाती है विज्ञान की शिक्षा दी जाती है इन शिक्षा संस्थाओं का बेहतर प्रबंधन है यह शिक्षा महगी है
सीमित संस्थान व सीटे हैं
नौकर बनने की शिक्षा
देश में एक शिक्षा का सिस्टम ऐसा है जिससे नौकर व मजदूर बनकर निकलते है इन संस्थानों का घटिया प्रबंधन होता है शिक्षकों से शिक्षा के अलावा अन्य शासकीय कार्य कराये जाते हैं इस शिक्षा को ग्रहण करने के लिए उच्च शिक्षा संस्थान सीमित है जहां प्रवेश नही मिल पाता है इसलिए उच्च शिक्षा ग्रहण नही कर पाते है जिससे ड्रोआउट रेट बढ जाता है
महात्मा फुले
महात्मा फुले कहते है कि जब मंदिर की घंटी बजती है तो हम मानसिक गुलामी, अंधविश्वा व पखंडबाद की ओर बढता है और जब स्कूल की घंटी बजती है तो तर्कपूर्ण ज्ञान व वैज्ञानिकता की ओर बढता है लेकिन ब्राम्हणवादियों ने इसका भी हल निकाल लिया.
धर्म और अंध विश्वास की शिक्षा
पिछडे वर्ग के लोगों को मानसिक गुलाम बनाने के नियमित भजन कीर्तन, सप्ता भगवत का आयोजन स्वर्ग व नरक का डर दिखा कर एसएी एसटी ओबीसी के लोगों को मूर्ख बनाकर करवाते रहते है
शिक्षा के कोर्स में धार्मिक शिक्षा का प्रवेश करके लोगों को अंध विश्वास व मूर्खता का पाठ पढाते है जिससे दिशाहीन व मानसिक गुलाम शिक्षित होकर निकलतें हैा जो अपनी तरक्की के लिए मंदिरों के चंक्कर लगाकर घटा बजाने मं अपना समय वर्वाद करते रहते हैं इस प्रकार पिछडे वर्ग के लोगों को घटा पकडा दिया है जब किसी को कुछ नही देना होता है कहा जाता है ले ले घंटा.. इसका मतलब होता है उसको को कुछ नही देना है इस घंटा के चक्कर में पिछडे वर्ग के लोगो को आज तक अपना हक नही मिल पाया है
राजओं ने शिक्षा को सत्ता चलाने का हथियार बनाकर उपयोग किया
ब्राम्हणवादी व्यवस्था के लोग धार्मिक शिक्षा के आधार पर वर्ण व्यवस्था कायम कर हजारों वर्ष तक शासन किया
मुश्लिम शासकों ने मुश्लिम धार्मिक शिक्षा के आधार पर शासन में रहे
अग्रेजों ने अपने शासन को चलाने के लिए अग्रेजी शिक्षा को आधार बनाया
धार्मिक सत्ता
धार्मिक सत्ता के अंत के बाद लोकतांत्रिक राजनेतिक सत्ता स्थापित हुई
राजनैतिक सत्ता पाने के लिए धर्म आधार बनाया जा रहा है जिससे वर्ग विशेष लंबे समय तक सत्ता में कायम बना रहे. लोकतांत्रिक राजनेतिक सत्ता को समप्त कर धार्मिक सत्ता स्थापित करने के प्रयास जारी हैं जिससे भारतीय संविधान को समाप्त कर मनुस्मृति को लागू करने का प्रयास किया जा रहा है
आजादी के बाद सभी प्रमुख पदो पर ब्राम्हणों की नियुक्ति की गई. वाइसचांसलर पर अधिकतर ब्राम्हणों की नियुक्ति किया गया औरअधिकारियों के पदों पर अधिकतर ब्राम्हणों की नियुक्ति की गई जिससे शिक्षकों के पदों पर अधिकतर ब्राम्हणों की नियुक्ति हुई.
बीजेपी ने तो कोलेटरल से सचिवों की नियुक्ति कर दी गई. योग्य अनुभवी पढे लिखे सब देखते रह गये
धार्मिक सत्ता हमेशा बनी रहे इसलिए नई शिक्षा नीति लाकर धर्म ग्रंथ रामायण महाभारत वेद पुराणों को पाठ्यक्रम जोडकर पढाने का काम सरकारी खर्च पर किया जायेगा. इस प्रकार पूरी शिक्षा व्यवस्था पर ब्राम्णवाद के शिकंजे में फस चुकी है जिससे बकरे और गीदड ही नही मानसिंग गुलाम पेदा होगें जो स्वत: कहेगें कि मुझे भगवान ने नीच पैदा किया है इसलिए नीच हूं भगवान ने पिछडे वर्ग में पैदा किया है इसलिए पिछडा हूं
शिक्षा का बटवारा कैसे होना चाहिए
ब्राम्हण को ३.५ प्रतिशत, क्षत्रिय को ५.५ प्रतिशत, वेश्य को ६ प्रतिशत, शूद्र को ८५ प्रतिशत (ओबीसी ५२ प्रतिशत, एससी १५ प्रतिशत, माइनोरिटी १०.५ प्रतिशत
एसटी ७.५ प्रतिशत) शिक्षा मिलनी चाहिए थी
शिक्षा का बटवारा कैसे किया
ब्राम्हण ३.५ को ५० प्रतिशत, क्षत्रिय को ५.५ को १६ प्रतिशत, वेश्य को ६ को १२ प्रतिशत, शूद्र को ८५ को २२ प्रतिशत (ओबीसी ५२ को १२ प्रतिशत, एससी १५ को ६ प्रतिशत, माइनोरिटी १०.५ को २ प्रतिशत, एसटी ७.५ को २ प्रतिशत) शिक्षा देकर असमान बटवारा आजाद भारत की सरकारों ने किया है
शिक्षा का किसका कितना हिस्सा छीना
एससी का ९ प्रतिशत, एसटी का ५.५ प्रतिशत, ओबीसी ४० प्रतिशत माइनोरिटी ८.५ प्रतिशत कुल ८५ मूल निवासियों का ६३ प्रतिशत हिस्सा छीन लिया २२ प्रतिशत शिक्षा मिली वह भी दिशाहीन है इस प्रकार जो आवादी में १५ प्रतिशत है उन्हे ७८ प्रतिशत शिक्षा और जो आवादी में ८५ प्रतिशत है उन्हे २२ प्रतिशत शिक्षा दी गई है वह भी दिशाहीन है जिससे गुलामगीर व चाटुकार पैदा हुए हैं
भारत में शिक्षा के प्रति रुझान प्राचीन काल से ही देखने को मिलता है। प्राचीन काल में गुरुकुलों, आश्रमों तथा बौद्ध मठों में शिक्षा ग्रहण करने की व्यवस्था होती थी। तत्कालीन शिक्षा केन्द्रों में नालन्दा, तक्षशिला एवं वल्लभी की गणना की जाती है।
मध्यकालीन भारत में शिक्षा मदरसों में प्रदान की जाती थी। मुग़ल शासकों ने दिल्ली, अजमेर, लखनऊ एवं आगरा में मदरसों का निर्माण करवाया।
भारत में आधुनिक व पाश्चात्य शिक्षा की शुरुआत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन काल से हुई।
१८५० तक भारत में गुरुकुल की प्रथा चलती आ रही थी परन्तु मैकाले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के संक्रमण के कारण भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का अन्त हुआ और भारत में कई गुरुकुल बंद हुए और उनके स्थान पर कान्वेंट और पब्लिक स्कूल खोले गए।
प्राचीन काल भारतीय शिक्षा
भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिकता पर आधारित थी। शिक्षा, मुक्ति एवं आत्मबोध के साधन के रूप में थी। यह व्यक्ति के लिये नहीं बल्कि धर्म के लिये थी।
विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा को प्रकाश स्रोत, अन्तर्दृष्टि, अन्तर्ज्योति, ज्ञानचक्षु और तीसरा नेत्र आदि उपमाओं से विभूषित किया है।
प्राचीन काल भारतीय शिक्षा
जिस प्रकार अन्धकार को दूर करने का साधन प्रकाश है, उसी प्रकार व्यक्ति के समस्त संशयों और भ्रमों को दूर करने का साधन शिक्षा है।
प्राचीन काल में इस बात पर बल दिया गया कि शिक्षा व्यक्ति को जीवन का यथार्थ दर्शन कराती है तथा इस योग्य बनाती है कि वह भवसागर की बाधाओं को पार करके अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर सके जो कि मानव जीवन का चरम लक्ष्य है।
वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योतिष और निरुक्त उनके पाठ्य होते थे।
पाँच वर्ष के बालक की प्राथमिक शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी। गुरुगृह में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी।
8 वें वर्ष में ब्राह्मण बालक के, 11 वें वर्ष में क्षत्रिय के और 12 वें वर्ष में वैश्य के उपनयन की विधि थी। अधिक से अधिक यह 16, 22 और 24 वर्षों की अवस्था में होता था।
प्राचीन भारत में किसी प्रकार की परीक्षा नहीं होती थी और न कोई उपाधि ही दी जाती थी।
नित्य पाठ पढ़ाने के पूर्व ब्रह्मचारी ने पढ़ाए हुए षष्ठ को समझा है और उसका अभ्यास नियम से किया है या नहीं, इसका पता आचार्य लगा लेते थे।
ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे तथा बाद विवाद और शास्त्रार्थ में सम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे।
पाठ्यक्रम के विस्तार के साथ वेदों ओर वेदांगों के अतिरिक्त साहित्य, दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण और चिकित्साशास्त्र इत्यादि विषयों का अध्यापन होने लगा। टोल पाठशाला, मठ ओर विहारों में पढ़ाई होती थी।
काशी, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वलभी, ओदंतपुरी, जगद्दल, नदिया, मिथिला, प्रयाग, अयोध्या आदि शिक्षा के केंद्र थे। दक्षिण भारत के एन्नारियम, सलौत्गि, तिरुमुक्कुदल, मलकपुरम् तिरुवोरियूर में प्रसिद्ध विद्यालय थे। अग्रहारों के द्वारा शिक्षा का प्रचार और प्रसार शताब्दियों होता रहा। कादिपुर और सर्वज्ञपुर के अग्रहार विशिष्ट शिक्षाकेंद्र थे।
बौद्धों और जैनों की शिक्षापद्धति भी इसी प्रकार की थी।
मध्यकाल
भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा।
फारसी जाननेवाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाने लगे। हिंदू अरबी और फारसी पढ़ने लगे।
बादशाहों और अन्य शासकों की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार इस्लामी आधार पर शिक्षा दी जाने लगी।
इस्लाम के संरक्षण और प्रचार के लिए मस्जिदें बनती गई, साथ ही मकतबों, मदरसों और पुस्तकालयों की स्थापना होने लगी।
मकतब प्रारंभिक शिक्षा के केंद्र होते थे और मदरसे उच्च शिक्षा के। मकतबों की शिक्षा धार्मिक होती थी। विद्यार्थी कुरान के कुछ अंशों का कंठस्थ करते थे।
वे पढ़ना, लिखना, गणित, अर्जीनवीसी और चिट्ठीपत्री भी सीखते थे। इनमें हिंदू बालक भी पढ़ते थे।
मकतबों में शिक्षा प्राप्त कर विद्यार्थी मदरसों में प्रविष्ट होते थे। यहाँ प्रधानता धार्मिक शिक्षा दी जाती थी।
साथ साथ इतिहास, साहित्य, व्याकरण, तर्कशास्त्र, गणित, कानून इत्यादि की पढ़ाई होती थी।
सरकार शिक्षकों को नियुक्त करती थी। कहीं कहीं प्रभावशाली व्यक्तियों के द्वारा भी उनकी नियुक्ति होती थी।
अध्यापन फारसी के माध्यम से होता था। अरबी मुसलमानों के लिए अनिवार्य पाठ्य विषय था। छात्रावास का प्रबंध किसी किसी मदरसे में होता था।
दरिद्र विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति मिलती थी। अनाथालयों का संचालन होता था। शिक्षा नि:शुल्क थी।
हस्तलिखित पुस्तकें पढ़ी और पढ़ाई जाती थीं।
सादगी, सदाचार, विद्याप्रेम और धर्माचरण पर जोर दिया जाता था। कंठस्थ करने की परंपरा थी। प्रश्नोत्तर, व्याख्या और उदाहरणों द्वारा पाठ पढ़ाए जाते थे। कोई परीक्षा नहीं थी।
अध्ययन अध्यापन में प्राप्त अवसरों में शिक्षक छात्रों की योग्यता और विद्वत्ता के विषय में तथ्य प्राप्त करते थे। दंड प्रयोग किया जाता था। जीविका उपार्जन के लिए भी शिक्षा दी जाती थी।
दिल्ली, आगरा, बीदर, जौनपुर, मालवा मुस्लिम शिक्षा के केंद्र थे। मुसलमान शासकों के संरक्षण के अभाव में भी संस्कृत काव्य, नाटक, व्याकरण, दर्शन ग्रंथों की रचना और उनका पठन पाठन बराबर होता रहा।
आधुनिक काल
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों से डाली गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारंभ में मद्रास ही उनका कार्यक्षेत्र रहा।
धीरे धीरे कार्यक्षेत्र का विस्तार बंगाल में भी होने लगा। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे।
रविवार को विद्यालय बंद रहता था। अनेक शिक्षक छात्रों की पढ़ाई अनेक श्रेणियों में कराते थे। अध्यापन का समय नियत था। साल भर में छोटी बड़ी अनेक छुट्टियाँ हुआ करती थीं।
प्राय: 150 वर्षों के बीतते बीतते व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी राज्य करने लगी। विस्तार में बाधा पड़ने के डर से कंपनी शिक्षा के विषय में उदासीन रही।
फिर भी विशेष कारण और उद्देश्य से 1781 में कलकत्ते में ‘कलकत्ता मदरसा’ कंपनी द्वारा और 1792 में बनारस में ‘संस्कृत कालेज’ जोनाथन डंकन द्वारा स्थापित किए गए।
धर्मप्रचार के विषय में भी कंपनी की पूर्वनीति बदलने लगी। कंपनी अब अपने राज्य के भारतीयों को शिक्षा देने की आवश्यकता को समझने लगी।
1835 ई. में लार्ड बेंटिक ने निश्चय किया कि अंग्रेजी भाषा और साहित्य और यूरोपीय इतिहास, विज्ञान, इत्यादि की पढ़ाई हो और इसी में 1813 के आज्ञापत्र में अनुमोदित धन का व्यय हो। प्राच्य शिक्षा चलती चले, परंतु अंग्रेजी और पश्चिमी विषयों के अध्ययन और अध्यापन पर जोर दिया जाए।
पाश्चात्य रीति से शिक्षित भारतीयों की आर्थिक स्थिति सुधरते देख जनता इधर झुकने लगी। अंग्रेजी विद्यालयों में अधिक संख्या में विद्यार्थी प्रविष्ट होने लगे क्योंकि अंग्रेजी पढ़े भारतीयों को सरकारी पदों पर नियुक्त करने की नीति की सरकारी घोषणा हो गई थी
सरकारी प्रोत्साहन के साथ साथ अंग्रेजी शिक्षा को पर्याप्त मात्रा में व्यक्तिगत सहयोग भी मिलता गया। अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के साथ साथ अधिक कर्मचारियों की और चिकित्सकों, इंजिनियरों और कानून जाननेवालों की आवश्यकता पड़ने लगी।
स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा फुले ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को इस योग्य बना दिया।
उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए। स्त्री शिक्षा पर ध्यान दिया जाने लगा।
1894 में कोल्हापुर रियासत के राजा छत्रपति साहूजी महाराज ने दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के लिए विद्यालय खोले और छात्रावास बनवाए।
इससे उनमें शिक्षा का प्रचार हुआ और सामाजिक स्थिति बदलने लगी। 1894 से 1922 तक पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाएं खोलने की पहल की।
यह अनूठी पहल थी उन जातियों को शिक्षित करने के लिए, जो सदियों से उपेक्षित थीं, इस पहल में दलित-पिछड़ी जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए ख़ास प्रयास किये गए थे। वंचित और गरीब घरों के बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई।
1920 को नासिक में छात्रावास की नींव रखी। साहू महाराज के प्रयासों का परिणाम उनके शासन में ही दिखने लग गया था। साहू जी महाराज ने जब देखा कि अछूत-पिछड़ी जाति के छात्रों की राज्य के स्कूल-कॉलेजों में पर्याप्त संख्या हैं, तब उन्होंने वंचितों के लिए खुलवाये गए पृथक स्कूल और छात्रावासों को बंद करवा दिया और उन्हें सामान्य छात्रों के साथ ही पढ़ने की सुविधा प्रदान की।
डा० भीमराव अम्बेडकर बड़ौदा नरेश की छात्रवृति पर पढ़ने के लिए विदेश गए लेकिन छात्रवृत्ति बीच में ही रोक दिए जाने के कारण उन्हे वापस भारत आना पड़ा। इसकी जानकारी जब साहू जी महाराज को हुई तो महाराज ने आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए उन्हें सहयोग दिया।
अंग्रेजों की शिक्षा नीति का लक्ष्य था – संस्कृत, फारसी तथा लोक भाषाओं के वर्चस्व को तोड़कर अंग्रेजी का वर्चस्व कायम करना। साथ ही
सरकार चलाने के लिए देशी अंग्रेजों को तैयार करना।
नई शिक्षा नीति क्या है?
इस बार नई शिक्षा नीति को लागू करने के लिए केन्द्र ने साल 2030 तक का लक्ष्य रखा गया है. चूंकि शिक्षा संविधान में समवर्ती सूची का विषय है, जिसमें राज्य और केन्द्र सरकार दोनों का अधिकार होता है, इसलिए राज्य सरकारें इसे पूरी तरह माने ये ज़रूरी नहीं है. जहाँ कहीं टकराव वाली स्थिति होती है, दोनों पक्षों को आम सहमति से इसे सुलझाने का सुझाव दिया गया है.
5+3+3+4 क्या है?
अब शुरुआत स्कूली शिक्षा में किए गए बदलाव से करते हैं. नई शिक्षा नीति में पहले जो 10+2 की पंरपरा थी, अब वो खत्म हो जाएगी. अब उसकी जगह सरकार 5+3+3+4 की बात कर रही है.
5+3+3+4 में 5 का मतलब है – तीन साल प्री-स्कूल के और क्लास 1 और 2 उसके बाद के 3 का मतलब है क्लास 3, 4 और 5 उसके बाद के 3 का मतलब है क्लास 6, 7 और 8 और आख़िर के 4 का मतलब है क्लास 9, 10, 11 और 12.
यानी अब बच्चे 6 साल की जगह 3 साल की उम्र में फ़ॉर्मल स्कूल में जाने लगेंगे. अब तक बच्चे 6 साल में पहली क्लास मे जाते थे, तो नई शिक्षा नीति लागू होने पर भी 6 साल में बच्चा पहली क्लास में ही होगा, लेकिन पहले के 3 साल भी फ़ॉर्मल एजुकेशन वाले ही होंगे. प्ले-स्कूल के शुरुआती साल भी अब स्कूली शिक्षा में जुड़ेंगे.
इसका मतलब ये कि अब राइट टू एजुकेशन का विस्तार होगा. पहले 6 साल से 14 साल के बच्चों के लिए आरटीई लागू किया गया था. अब 3 साल से 18 साल के बच्चों के लिए इसे लागू किया गया है.
ये फार्मूला सरकारी और प्राइवेट सभी स्कूलों पर लागू होगा.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेंडा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की माँग लंबे समय से रही है कि देश की शिक्षा प्रणाली का भारतीयकरण होना चाहिए.
. वैदिक गणित, दर्शन और प्राचीन भारतीय परंपरा से जुड़े विषयों को अहमियत देने के बारे में नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि “इनको तार्किक और वैज्ञानिक आधार जाँचने के बाद जहाँ प्रासंगिक होगा, वहाँ पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाएगा.”
ब्राम्हणवादी व्यवस्था को चलाने के लिए हिन्दू के नाम पर एससी, एसटी, ओबीसी के मानसिक गुलाम को तैयार करना। जिससे चतुवर्णीय व्यवस्था चलती रहे और ब्राम्हण सर्वोपरि बना रहे
ऐसी शिक्षा व्यवस्था हो जिसमें महात्मा फूले, पेरियार , अबेडकर जैसे तमाम महापुरूषों के संघार्षो के बारे मे भी पढाया जाय जो समाज के न्याया के लिए संघर्ष करते करते दुनिया से चले गये
जिनकी बजह से साफ कपडे पहनने व स्वच्छ खाना खाने व पढाई कर शासन सत्ता में भागीदारी कर संम्मान से जीने का हक मिला
जिससे वह इस आजादी का बचाने के लिए निरंतर संघर्ष करते रहे और आने वाली पीढियोें को भी जानकारी दे
निष्कर्ष:
जब तक सभी जातियों को शिक्षा में समान भागीदारी नहीं मिलती, तब तक समाज में वास्तविक समानता प्राप्त नहीं की जा सकती।
शिक्षा के क्षेत्र में जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने और सवणों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए समग्र और सतत प्रयासों की जरूरत है। इसके लिए कानूनी सुधार, शिक्षा और सामाजिक जागरूकता अभियान आवश्यक हैं।